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Guruvar(Brihaspativar) Vrat Katha गुरुवार व्रत




पूजा विधि
बृहस्पतिवार को जो स्त्री-पुरुष व्रत करें उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें क्योंकि बृहस्पतेश्वर भगवान का इस दिन पूजन होता है भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का प्रयोग करें, पीले चन्दन से पूजन करें, पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएं पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं तथा धन, पुत्र विद्या तथा मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख शान्ति मिलती है, इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक, सब स्त्री व पुरुषों के लिए है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय तन, मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को बृहस्पतिदेव अवश्य पूर्ण करते हैं ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।

अथ श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा

भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बड़ा प्रतापी और दानी था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्‌मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।

एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा मांगी रानी ने भिक्षा देने से इन्कार किया और कहा- हे साधु महाराज मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूं। मेरा पति सारा धन लुटाता रहता है। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए फिर न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

साधु ने कहा- देवी तुम तो बड़ी अजीब हो। धन, सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा। परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली- महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बांटती फिरूं। साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्‌टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्‌टी चढ़ाकर कपड़े धोना, ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहां से आलोप हो गये।

जैसे वह साधु कह कर गया था रानी ने वैसा ही किया। छः बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि तुम यहां पर रहो मैं दूसरे देश में जाउं क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता। देश चोरी परदेश भीख बराबर है ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया वहां जंगल को जाता और लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेंचता इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।

एक दिन दुःखी होकर जंगल में एक पेड के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था। एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड हारे के सामने आकर बोले- हे लकड हारे! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है? लकड हारे ने दोनों हाथ जोड कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं मैं क्या कहूं। यह कहकर रोने लगा और साधु को आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा- तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन वीर भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दि कथा किया करो। दो पैसे के चने मुनक्का मंगवाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब कामनायें पूरी करेंगे।

साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला- हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं। साधु ने कहा- हे लकड हारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकडि यां लेकर शहर को जाओ। तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी भी शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।

उस दिन से उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनावे न आग जलावे समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसके लिए फांसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहां पर दिखाई न दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है। उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया। जब लकड हारा कारागार में पड गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- अरे मूर्ख! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बृहस्पति के दिन उसे चार पैसे मिले। लकड हारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- हे राजा! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है उसे छोड देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तू ऐसा नही करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकड हारे को योग्य सुन्दर वस्त्र आभूषण देकर विदा कर बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा जब अपने नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला है तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी और बांदी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने बांदी से कहा कि- हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट न जायें इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है तब उन्होंने कहा- हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।

राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्‌टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोककर राजा कहने लगा- अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो। वे बोले - लो! हमारा तो आदमी कर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले- अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम-राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।

आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देख और उससे बोला- अरे भइया! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा उसके पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुंचा। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा- ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहिन बोली- हे भैया! यह देश ऐसा ही है कि पहले यहां लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आउं। वह ऐसा कहकर देखने चली गई परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड का ठीक हो गया अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।

एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से कहा। सास ने कहा हां चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है। बहन ने अपने भइया से कहा- हे भइया! मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं जाएगा। राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम क्या करोगी। बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा हम निरवंशी हैं। हमारा मुंह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली- हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा- हे राजा उठ। सभी सोच त्याग दे तेरी रानी गर्भ से है। राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला- हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती हे बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहिन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुनकर हां कर दिया।

जब राजा की बहिन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, तभी रानी ने कहा- घोड़ा चढ कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली- भाभी मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती। बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं, सभी को पूर्ण करते हैं, जो सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ ता है अथवा सुनता है दूसरो को सुनाता है बृहस्पतिदेव उसकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

भगवान बृहस्पतिदेव उसकी सदैव रक्षा करते हैं संसार में जो मनुष्य सदभावना से भगवान जी का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने उनकी कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छायें बृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की थीं। इसलिए पूर्ण कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से उसका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए।

॥ बोलो बृहस्पतिदेव की जय। भगवान विष्णु की जय॥

बृहस्पतिदेव की कथा

प्राचीन काल में एक ब्राह्‌मण रहता था, वह बहुत निर्धन था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह स्नान न करती, किसी देवता का पूजन न करती, इससे ब्राह्‌मण देवता बड़े दुःखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कुछ परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्‌मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ। कन्या बड़ी होने पर प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप व बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके विद्यालय जाती तो अपनी मुट्‌ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। तब ये जौ स्वर्ण के जो जाते लौटते समय उनको बीन कर घर ले आती थी।

एक दिन वह बालिका सूप में उस सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि उसके पिता ने देख लिया और कहा - हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन बृहस्पतिवार था इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजपुत्र वहां से होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ उसके पास गए और बोले- हे बेटा तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है अथवा और कारण हो सो कहो मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। अपने पिता की राजकुमार ने बातें सुनी तो वह बोला- मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूं जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। यह सुनकर राजा आश्चर्य में पड ा और बोला- हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ। मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लड की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड की के घर गए और ब्राह्‌मण देवता को सभी हाल बतलाया। ब्राह्‌मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए तथा विधि-विधान के अनुसार ब्राह्‌मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।

कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्‌मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्‌मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्‌मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्‌मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्‌मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सारा हाल कहा तो लड की बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्‌मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो अपनी मां को समझाने लगी- हे मां तुम प्रातःकाल प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जावेगी। परन्तु उसकी मांग ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन को खा लिया। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला तथा स्नानादि कराके पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई और फिर प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसके मां बाप बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए और बृहस्पतिजी के प्रभाव से इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।

विष्णु भगवान की जय। बृहस्पति देव भगवान की जय

Budhvar Vrat Katha


Ravivar Vrat Katha रविवार व्रत




Karwa Chauth Vrat Katha करवा चौथ व्रत

श्री सत्यनारायण व्रत कथा

पूजन सामग्री:
केले के खम्बे, कलश, पाँच रत्न,चावल, धुप, पुष्प माला, अंग वस्त्र, नैवैध्य, आम के पत्ते, वस्त्र, सोने की प्रतिमा, कपूर, गुलाब के फूल, दीप, तुलसी, पान, पंचामृत(घी, दही, शहद, तुलसी का पत्ता, शक्कर), प्रसाद (आटे, घी और शक्कर से बना)
पूजनविधि:
व्रत करने वाला पूर्णिमा,संक्रांत या एकादसी के दिन,संध्या स्नान आदि से निवृत्त होकर,पूजा स्थान में आसन पर बैठकर और श्री गणेश,गौरी,वरुण,विष्णुजी आदि नव देवताओं का ध्यान करके,पूजन करे और संकल्प करे कि मैं श्री सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा श्रवण सदैव करुँगा| पुष्प हाथों में लेकर,श्री सत्यनारायण स्वामी का ध्यान करे|पुष्प,धुप,दीप,नैवेद्य आदि से युक्त होकर स्तुति करें|'हे भगवन,मैंने श्रद्धा पूर्वक फल,जल,आदि सब सामग्री आपको अर्पण की है;इसे स्वीकार कीजिये,आपदाओं से मेरी रक्षा कीजिये, मेरा आपको बारम्बार नमस्कार है| इसके बाद श्री सत्यनारायण की कथा पढ़े अथवा श्रवण करें|
कथा
पहला अध्याय
एक समय नेमिशारणय तीर्थ में शौनिक आदि अठासी हज़ार ऋषियों ने श्री सूतजी से पुछा- "हे प्रभु,इस कलयुग में विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? इसलिए हे मुनिश्रेष्ठ, कोई ऐसा तप कहिये जिस से थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनोवांछित फल मिले| सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले, "हे वैष्णवों में पूज्य- आप सब ने सर्व प्राणियों के हित की बात पूछी है | अब में उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगो में कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने श्री लक्ष्मीनारायण से पुछा था और श्री लक्ष्मीपति ने मुनि श्रेष्ठ नारद से कहा था,सो ध्यान से सुनिये|

मुनिनाथ सुनो यह सत्यकथा सब कालहिं होय महासुखदाई | ताप हरे, भाव दूर करे, सब काज सरे सुख की अधिकाई ||
अति संकट में दुःख दूर करे सब ठौर कुठौर में होत सुहाई | प्रभु नाम चरित गुणगान किये बिन कैसे महाकलि पाप नसाई ||

एक समय,योगीराज नारद जी दूसरों के हित की इच्छा से,अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे| वहाँ बहुत योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्योंको अपने कर्मों के द्वारा अनेक दुखों से पीड़ित देखकर किस यत्न के करने से निश्चय ही इनके दुखों का नाश हो सकेगा, ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये | वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को (जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, तथा वनमाला पहने हुए थे) देखकर स्तुति करने लगे | "हे भगवन, आप अत्यंत शक्ति से संपन्न है | मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि, मध्य और अंत नहीं है, निर्गुण स्वरुप श्रृष्टि के आदि, भूत व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है |" नारदजी से इस प्रकार स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले कि "हे मुनिश्रेष्ठ-आपके मन में क्या है? आपका यहाँ किस काम के लिए आगमन हुआ है?निःसंकोच कहो|" तब नारदमुनि बोले,"मृत्यु लोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं,अपने अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं| हे नाथ, मुझपर दया रखते हैं तो बतलायें कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं ?" श्री विष्णु भगवानजी बोले कि "हे नारद,मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत अच्छी बात पूछी| जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छुट जाता है,वह मै कहता हूँ, सुनो|बहुत पुण्य का देने वाला,स्वर्ग तथा मनुष्य लोक दोनों में दुर्लभ एक व्रत है | आज में प्रेमवश तुमसे कहता हूँ | श्री सत्यनारायणजी का व्रत अच्छी तरह विधान पूर्वक करके मनुष्य तुरंत ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है |" श्री विष्णु भगवान के वचन सुनकर नारद जी ने पुछा कि उस व्रत का क्या फल है, क्या विधान है, और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए, कृपा करके विस्तार से बताइए | श्री विष्णु भगवान ने कहा, "दुःख शोक आदि को दूर करने वाला, धन धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला, सब स्थानों पर विजय करने वाला, श्री सत्यनारायण व्रत है | भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन, मनुष्य श्री सत्यनारायण की शाम के समय, ब्राह्मणों और बंधुओ के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे, भक्ति भाव से नैवद्य , केले का फल, शहद,घी, शक्कर अथवा गुड़, दूध, और गेहूं का आता सवाया लेवे (गेंहू के अभाव में साठी का चूरन भी ले सकते है ) | इन सबको भक्ति भाव से भगवान् को अर्पण करे | बन्धुबांधवों सहित ब्राह्मिनों को भोजन करावे | इसके पश्चात् स्वयं भोजन करे | रात्रि में नाम संकीर्तन का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे | इस तरह जो मनुष्य व्रत करेगे, उनका मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा हे भक्तराज ! तुमसे तो विकराल कलिकाल के कर्म छिपे नहीं है | खान-पान और आचार-विचार को चाहते हुए भी पवित्रता न रख पाने के कारण, क्योकि जीव मेरा नाम स्मरण करके ही अपना लोक-परलोक संवार सकेंगे, इसलिए विशेष रूप से कलिकाल में मृत्युलोक में यही एक लघु और आसान उपाय है, जिससे अल्प समय और अल्प धन में प्रत्येक जीव को महान पुण्य प्राप्त हो सकता है |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रारंभ अध्याय सम्पूर्ण ||
द्वितीय अध्याय
सूतजी ने कहा- हे ऋषियों, जिन्होंने पहले समय में इस व्रत को किया है , उनका इतिहास कहता हूँ, आप सब ध्यान से सुने | सुंदर काशीपुर नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मिण रहता था | वह ब्राह्मिण भूख और प्यास से बैचैन होकर नित्य पृथ्वी पर घूमता था | ब्राह्मिनो से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान् ने ब्राह्मिण को दुखी देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मिण का रूप धारण कर निर्धन ब्राह्मिण के पास जाकर आदर से पुछा - हे विप्र ! तुम नित्य ही दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो ? हे श्रेष्ठ ब्राह्मिण यह सब मुझे कहो, मै सुनना चाहता हूँ | दरिद्र ब्राह्मिण ने कहा - मै निर्धन ब्राह्मिण हूँ , भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ | हे भगवान् यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हो तो कृपा कर मुझे बताएं | मै आपकी शरण में हूँ | वृद्ध ब्राह्मिण का रूप धारण किये श्री विष्णु भगवान् ने कहा - हे ब्राह्मिण! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं, इसीलिए तुम उनका पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है | इसी के साथ दरिद्र ब्राह्मिण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मिण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान् अंतर्ध्यान हो गए | जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मिण ने बताया है, उसे मै अवश्य करूँगा, यह सोचकर वह दरिद्र ब्राह्मिण घर चला गया, परन्तु उस रात्रि उस ब्राह्मिण को नींद नहीं आई | अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा मांगने चल दिया | उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे उसने पूजा का सब सामान ख़रीदा और घर आकर अपने बन्धु-बांधवों के साथ भगवान् श्री सत्यनारायण का व्रत किया | इसके करने से वह दरिद्र ब्राह्मिण सब प्रकार के दुखों से छूटकर अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया | उस समय से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा | सत्यनारायण भगवान् के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धा पूर्वक करेगा, सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा | आगे जो मनुष्य पृथ्वी पर भगवान् सत्यनारायण का व्रत करेगा, वह सब दुखों से छुट जायेगा | इस तरह नारदजी से श्री सत्यनारायण भगवान् का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा | हे विप्रों, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझे बताएं ? ऋषियों ने कहा - हे मुनीश्वर ! संसार में इस विप्र से सुनकर और किस किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते है | इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है | श्री सूतजी ने कहा - हे मुनियों ! जिस जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है उन सबकी कथा सुनो | एक समय वह ब्राह्मिण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु- बांधवों के साथ अपने घर पर व्रत कर रहा था | उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बुढा व्यक्ति वहाँ आया | उसने सर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और विप्र के घर में चला गया | प्यास से दुखी लकडहारे ने विप्र को व्रत करते देखा | वह प्यास को भूल गया | उसने विप्र को नमस्कार किया और पूछा - हे विप्र ! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं ? इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है ? कृपया मुझे बताएं | ब्राह्मिण ने कहा - सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह भगवान् श्री सत्यनारायण का व्रत है इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है | विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकडहारा बहुत प्रसन्न हुआ | भगवान् का चरणामृत ले और भोजन करने के पश्चात् वह अपने घर को चला गया | अगले दिन लकडहारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से भगवान् सत्यनारायण का उत्तम व्रत करुँगा | यह मन में विचा कर वः लकडहारा अपने सर पर लकड़ियों का गट्ठर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुंदर नगर में गया | उस दिन उसे उन लकड़ियों का दाम पहले के दिनों से चौगुना मिला | तब वह लकड़हारा अति प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद, घी, दूध, दही,गेहूं का चूर्ण आदि श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत की सारी सामग्री लेकर अपने घर पर आ गया | फिर उसने अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान् का पूजन और व्रत किया | उस व्रत के प्रभाव से वह बुढा लकडहारा धन,पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुंठ को चला गया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ||
तृतीय अध्याय
श्री सूतजी ने कहा - हे श्रेष्ठ ऋषियों ! अब आगे की एक कथा कहता हूँ | पूर्व काल में उल्कामुख नाम का एक महहन बुद्धिमान राजा था | वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था | प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था | उनकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी | भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया | उस समय वहां साधु नामक एक वैश्य आया | उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था | वह वैश्य नाव को किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया | राजा को व्रत करते देखकर उसने विनय के साथ पूछा - हे राजन ! भक्ति युक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं ? मेरी भी सुनने की इच्छा है, कृपया यह आप मुझे भी बताइए | महाराजा उल्कामुख ने कहा - हे साधु वैश्य ! मै अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ | राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा - हे राजन ! मुझे भी इसका विधान बतायें | मै भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूँगा | मेरे भी कोई संतान नहीं है | मुझे विश्वास है, इससे निश्चय ही मेरी भी संतान होगी | राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य आनंद के साथ अपने घर आया | वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और प्रण किया कि जब मेरी भी संतान होगी तब मै इस व्रत को करूँगा | साधु ने यह वचन अपनी पत्नी लीलावती से भी कहे | एक दिन उसकी पत्नी लीलावती आनंदित हो सांसारिक धर्म की प्रवृत्त हो श्री सत्यनारायण भगवान् की कृपा से गर्भवती हो गयी | दसवें महीने में उसने सुंदर कन्या को जन्म दिया | दिनोंदिन वह कन्या इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है | कन्या का नाम कलावती रखा गया | तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान् का व्रत करने का संकल्प किया था अब आप उसे पूरा कीजिये | साधु वैश्य ने कहा- हे प्रिये ! मै कन्या के विवाह के समय इस व्रत को करूँगा | इसप्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने चला गया | कलावती पितृ गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई | लौटने पर जब साधु ने नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा तो दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ | साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुंचा और खोजकर और देखभाल कर वैश्य की लड़की के लिए एक सुयोग्य वाणिक पुत्र ले आया | उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु नामक वैश्य ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया | दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करना भूल गया | इसपर श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए | उन्होंने वैश्य को श्राप दिया की तुम्हे दारुण दुःख प्राप्त होगा | अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य अपने जामाता सहित नावों को लेकर व्यापार करने के लिए समुन्द्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया | दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे | एक बार सत्यनारायण भगवान् की माया से प्रेरित एक चोर राजा का धन चुराकर भगा जा रहा था | राजा के दूतों को अपने समीप वेग से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वही नाव में चुपचाप रख दिया, जहा वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे,और भाग गया | जब दूतों से उस साधु नामक वैश्य के पास उस धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बांधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले - हम ये दो चोर पकड़कर लायें है, देखकर आज्ञा दें | तब राजा ने बिना उनकी बात सुने ही उन्हें कारागार में डालने की आज्ञा दे दी | इसप्रकार राजा की आज्ञा से उन्हें कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका धन भी छीन लिया गया | सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण लीलावती और उसकी पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुखी हुई | उनका धन भी चोर चुरा कर ले गए | शारीरिक और मानसिक पीड़ा से तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो भोजन की चिंता में कलावती कन्या एक ब्राह्मिण के घर गई | उसने ब्राह्मिण को भी सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते देखा | उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई | माता ने कलावती से पूछा-हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है ? कलावती बोली - हे माता ! मैंने आज एक ब्राह्मिण के घर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत होते देखा है | कन्या के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की | उसने परिवार और बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान् का व्रत एवम पूजन किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर लौट आयें | साथ ही प्रार्थना की कि हमारे सरे अपराध क्षमा कर दो | श्री सत्यनारायण भगवान् इस व्रत से संतुष्ट हो गए | उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन ! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं | उन्हें प्रात: ही छोड़ दो | उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है, लौटा दो | अन्यथा मै तुम्हारा धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा | राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान् अंतर्द्यान हो गए | प्रातःकाल राजा चंद्रकेतु ने सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिको को आज्ञा दी कि दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाया जाया | दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया | राजा ने कोमल वचनों में कहा- हे महानुभावों ! तुम्हे भावावेश ऐसा कठिन से कठिन दुःख प्राप्त हुआ है | अब तुम्हे कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो | इसके बाद राजा ने उनको नए - नए वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दूना लौटा कर आदर से विदा किया | दोनों वैश्य अपने घर को चल दिए |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ||
चतुर्थ अध्याय
श्री सूतजी ने आगे कहा - वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला | उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दंडी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान् ने उससे पूछा - हे साधु ! तेरी नाव में क्या है अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला- हे दंडी ! आप क्यों पूछते है ? क्या धन लेने की इच्छा है ? मेरी नाव में बेल पत्रादि भरे हुए है | वैश्य के कठोर वचन सुनकर दंडी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा- तुम्हारा वचन सत्य हो ! ऐसा कहकर वे वहां से चले गए और कुछ दूर जाकर समुन्द्र के किनारे बैठ गए | दंडी महाराज के जाने के पश्चात् वैश्य ने नित्यक्रिया से निवृत होने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो धरती पर गिर पड़ा | मूर्छा खुलने पर अत्यंत शोक प्रकट करने लगा | तब उसके जमाता ने कहा - आप शोक न करें | यह दंडी महाराज का श्राप है | अतः उनकी शरण में ही चलना चाहिए , तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी | जमाता के वचन सुनकर वह साधु नामक वैश्य साधु महाराज के पास पहुंचा और अत्यंत भक्ति-भाव से प्रणाम करके बोला- मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे,उनके लिए मुझे क्षमा करें | ऐसा कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा | तब दंडी भगवान् बोले - हे वाणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार- बार तुझे दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है | साधु नामक वैश्य ने कहा - हे भगवान् ! आपकी माया से ब्रम्हा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मै अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूँ | आप प्रसन्न होइए , मै आपनी सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा | मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका को धन से पूर्ण कर दो | उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान् प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतर्ध्यान हो गए | तब ससुर और जमाता दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है | फिर वह भगवान् सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला | जब वह अपने नगर के निकट पहुंचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा | दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा- आपके पति अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गए है | लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं | दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- मै अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना | परन्तु कलावती पूजन और प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन को चली गई | प्रसाद कि अवज्ञा के कारन सत्यदेव ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डूबा दिया | कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी | नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देखकर साधु नामक वैश्य दुखित हो बोला- हे प्रभु ! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है, उसे क्षमा करो | उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए | आकाशवाणी हुई- हे वैश्य ! तेरी कन्या मेरा प्रसाद छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अद्रश्य हुआ है | यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसका पति अवश्य मिलेगा | आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँच कर प्रसाद खाया और फिर अपने पति के दर्शन किये | तत्पश्चात सधू वैश्य ने वहीँ बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधि-पूर्वक पूजन किया | वह इस लोक का सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ||
पंचम अध्याय
श्री सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! मैं एक और भी कथा कहता हूँ, सुनो - प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था | उसने भगवान् सत्यदेव का प्रसाद त्यागकर बहुत दुःख पाया | एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया | वहां उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बंधु-बांधवों सहित श्री सत्यनारायण जी पूजन करते देखा | परन्तु राजा देखकर भी अभिमानवश न तो वहां गया और न ही सत्यदेव भगवान् को नमस्कार किया | जब ग्वालों ने भगवान् का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद त्यागकर अपने नगर को चला गया | नगर में पहुंचकर उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो गया है | वह समझ गया कि भगवान् सत्यदेव ने ही किया है | तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया | तो सत्यनारायण भगवान् कि कृपा से सबकुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घ काल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को चला गया | जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा , श्री सत्यनारायण भगवान् की कृपा से उसे धन- धान्य की प्राप्ति होगी | बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है | संतानहीन को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह बैकुंठ धाम को जाता है | जिहोने पहले इस व्रत को किया अंत में उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए | शतानंद नामक वृद्ध ने भी इस व्रत को किया , जिसने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्री कृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया | उल्कामुख नामक महाराज इस व्रत के पुन्य से राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर मृत्यु के बाद बैकुंठ को प्राप्त हुए | साधु नामक वैश्य ने सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष प्राप्त किया | वह भी इसी व्रत का फल था | इसी तरह महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए जिन्होंने बहुत से लोगों को भगवान् की भक्ति में लीन कर मोक्ष प्राप्त किया | लकडहारा भील अपने अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान् राम के चरणों की सेवाकर मोक्ष प्राप्त किया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय सम्पूर्ण ||
श्री सत्यनारायण भगवान की आरती
जय लक्ष्मीरमणा, श्री जय लक्ष्मीरमणा । सत्यनारायण स्वामी, जनपातक हरणा ॥ ॐ जय… रत्न जड़ित सिंहासन, अदभुत छवि राजे । नारद करत निराजन, घंटा ध्वनि बाजे ॥ ॐ जय… प्रगट भये कलि कारण, द्विज को दरश दियो । बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ ॐ जय… दुर्बल भील कठारो, इन पर कृपा करी । चंद्रचूड़ एक राजा, जिनकी विपत्ति हरी ॥ ॐ जय… वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीनी । सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति कीनी ॥ ॐ जय… भाव भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो । श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो ॥ ॐ जय… ग्वाल बाल संग राजा, वन में भक्ति करी ॥ मनवांछित फल दीन्हो, दीनदयाल हरी ॥ ॐ जय… चढ़त प्रसाद सवाया, कदली फल मेवा ॥ धूप दीप तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ ॐ जय… सत्यनारायण की आरति, जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी, वांछित फल पावे ॥ ॐ जय…